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सत्य के प्रयोग इस हफ्ते विशेष

महाप्रदर्शनी
मोहनदास करमचंद गांधी

सन 1890 में पेरिस में एक बड़ी प्रदर्शनी हुई थी। उसकी तैयारियों के बारे में पढ़ता रहता था। पेरिस देखने की तीव्र इच्छा तो थी ही। मैंने सोचा कि यह प्रदर्शनी देखने जाऊँ, तो दोहरा लाभ होगा। प्रदर्शनी में एफिल टॉवर देखने का आकर्षण बहुत था। यह टॉवर सिर्फ लोहे का बना है। एक हजार फुट ऊँचा है। इसके बनने से पहले लोगों की यह कल्पना थी कि एक हजार फुट ऊँचा मकान खड़ा ही नही रह सकता। प्रदर्शनी में और भी बहुत कुछ देखने जैसा था।

मैंने पढ़ा था कि पेरिस में एक अन्नाहार वाला भोजन गृह है। उसमें एक कमरा मैंने ठीक किया। गरीबी से यात्रा करके पेरिस पहुँचा। सात दिन रहा। देखने योग्य सब चीजें अधिकतर पैदल घूमकर ही देखीं। साथ में पेरिस की और उस प्रदर्शनी की गाइड तथा नक्शा ले लिया था। उसके सहारे रास्तों का पता लगाकर मुख्य मुख्य चीजें देख लीं।

प्रदर्शनी की विशालता और विविधता के सिवा उसकी और कोई बात मुझे याद नहीं है। एफिल टॉवर पर तो दो-तीन बार चढ़ा था, इसलिए उसकी मुझे अच्छी तरह याद है। पहली मंजिल पर खाने-पीने का प्रबंध था।यह कह सकने के लिए कि इतनी ऊँची जगह पर भोजन किया था, मैंने साढ़े सात शिंलिग फूँककर वहाँ खाना खाया।

पेरिस के प्राचीन गिरजाघरों की याद बनी हुई है। उनकी भव्यता और उनके अंदर मिलने वाली शांति भुलाई नही जा सकती। नोत्रदाम की कारीगरी और अंदर की चित्रकारी को मैं आज भी भूला नहीं हूँ। उस समय मन में यह ख्याल आया था कि जिन्होंने लाखों रुपये खर्च करके ऐसे स्वर्गीय मंदिर बनवाए है, उनके दिल की गहराई में ईश्वर प्रेम तो रहा ही होगा।

पेरिस का फैशन, पेरिस के स्वेच्छाचार और उसके भोग-विलास के विषय में मैंने काफी पढ़ा था। उसके प्रमाण गली-गली में देखने को मिलते थे। पर ये गिरजाघर उन भोग विलासों से बिल्कुल अलग दिखाई पड़ते थे। गिरजों में घुसते ही बाहर की अशांति भूल जाती है। लोगों का व्यवहार बदल जाता है। लोग अदब से पेश आते है। वहाँ कोलाहल नहीं होता। कुमारी मरियम की मूर्ति के सम्मुख कोई न कोई प्रार्थना करता ही रहता है। यह सब वहम नहीं है, बल्कि हृदय की भावना है, ऐसा प्रभाव मुझ पर पड़ा था और बढ़ता ही गया है। कुमारिका की मूर्ति के सम्मुख घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना करनेवाले उपासक संगमरमर के पत्थर को नहीं पूजते थे, बल्कि उसमें मानी हुई अपनी कल्पित शक्ति को पूजते थे। ऐसा करके वे ईश्वर की महिमा को घटाते नही बल्कि बढ़ाते थे, यह प्रभाव मेरे मन पर उस समय पड़ा था, जिसकी धुँधली याद मुझे आज भी है।

एफिल टॉवर के बारे मे दो शब्द कहना आवश्यक है। मैं नहीं जानता कि आज एफिल टॉवर का क्या उपयोग हो रहा है। प्रदर्शनी में जाने के बाद प्रदर्शनी संबंधी बातें तो पढ़ने में आती ही थी। उसमें उसकी स्तुति भी पढ़ी और निंदा भी। मुझे याद है कि निंदा करनेवालों में टॉल्स्टॉय मुख्य थे। उन्होंने लिखा था कि एफिल टॉवर मनुष्य की मूर्खता का चिह्न है, उसके ज्ञान का परिणाम नहीं। अपने लेख में उन्होंने बताया था कि दुनिया में प्रचलित कई तरह के नशों में तंबाकू का व्यसन एक प्रकार से सबसे ज्यादा खराब है। कुकर्म करने की जो हिम्मत मनुष्य में शराब पीने से नहीं आती, वह बीड़ी पीने से आती है। शराब पीनेवाला पागल हो जाता है, जब कि बीड़ी पीनेवाले की अक्ल पर धुआँ छा जाता है, और इस कारण वह हवाई किले बनाने लगता है। टॉल्स्टॉय ने अपनी यह सम्मति प्रकट की थी कि एफिल टॉवर ऐसे ही व्यसन का परिणाम है।

एफिल टॉवर में सौंदर्य तो कुछ है ही नहीं। ऐसा नहीं कह सकते कि उसके कारण प्रदर्शनी की शोभा में कोई वृद्धि हुई। एक नई चीज है बड़ी चीज है, इसलिए हजारों लोग देखने के लिए उस पर चढ़े। यह टॉवर प्रदर्शनी का एक खिलौना था। और जब तक हम मोहवश हैं तब तक हम भी बालक हैं, यह चीज इस टॉवर से भलीभाँति सिद्ध होती है। मानना चाहे तो इतनी उपयोगिता उसकी मानी जा सकती है।

कविताएँ
भवानीप्रसाद मिश्र

भवानीप्रसाद मिश्र की कविता हिंदी की सहज लय की कविता है। खड़ी बोली में बोलचाल के गद्यात्मक से लगते वाक्य-विन्यास को ही कविता में बदल देने की जो अद्भुत शक्ति है, उसकी अचूक पहचान भवानी भाई की कविता में दिखाई देती है। ...बोलचाल की इस लयात्मक संरचना के ही कारण उनकी कविता का स्वभाव मूलतः बातचीत या कहें कि वर्णन करने का है और इसी कारण उसमें एक प्रभावी किंतु सहज नाटकीयता आ जाती है और ये सब गुण मिलकर उनकी कविता में वह सामर्थ्य विकसित कर देते हैं कि वह सरलतम तरीके से जटिलतर स्थितियों और अनुभवों को संप्रेषित करने में कामयाब होती है। दरअसल, भवानी भाई की सरल कथन-भंगिमा हमें अनवधान में डाल देती है और उसी के चलते हम अनुभव की उस जटिल संरचना को पहचान पाने में चूक जाते हैं। वह एक छलपूर्ण सरलता है। कविता में इस किस्म की सरलता को पारदर्शिता कहा जाना चाहिए, लेकिन इसे सिद्ध कवि ही हासिल कर पाते हैं ...भवानी भाई इसमें अप्रतिम हैं।
                                                                                 - नंदकिशोर आचार्य

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कला आत्मा से रोजमर्रा की जिंदगी के गर्दो-गुबार को धो डालती है।

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खराब कलाकार नकल करते हैं, अच्छे कलाकार चोरी।

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कंप्यूटर बेकार होते हैं। वे आपको सिर्फ उत्तर दे सकते हैं।

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सृजन का हर कार्य पहले विध्वंस का कार्य होता है।

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हर चीज एक करिश्मा है। यह करिश्मा ही है कि नहाते समय कोई चीनी के दाने की तरह गल नहीं जाता।

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मैं तलाश नहीं करता, मैं पा जाता हूँ।

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काश कि हम अपना दिमाग बाहर निकालकर सिर्फ अपनी आँखों का इस्तेमाल कर सकते।

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जवान होने में बहुत वक्त लगता है।

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पेंटिंग डायरी लिखने का ही दूसरा तरीका है।

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कुछ पेंटर सूरज को एक पीले धब्बे में बदल देते हैं, अन्य पेंटर एक पीले धब्बे को सूरज में।

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"अच्छी" समझ रचनात्मकता की सबसे बड़ी दुश्मन होती है।

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आजकल की दुनिया के मायने समझ में नहीं आते। तो मैं ऐसी पेंटिंग क्यों बनाऊँ जो समझ में आए?

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हम बूढ़े नहीं होते जाते, हम पकते जाते हैं।

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